गंगा-यमुना तहजीब की बात है ‘नक्काश’ फिल्म, पढ़िए पूरा फिल्म रिव्यू….

फिल्म: नक्काश

निर्देशक: जैगम इमाम

कलाकार: इनामुल हक, शारिब हाशमी, कुमुद मिश्रा, पवन तिवारी

खबरें अभी तक। सर्वधर्म समभाव और सह-अस्तित्व की भावना भारतीय संस्कृति की मूल भावना रही है। हमारे यहां कहा भी गया है- ‘संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्’ (हम साथ मिलकर चलें, साथ मिलकर बोलें, हमारे मन एक हों)। जब-जब इन मूल्यों को चुनौती मिलती है, समाज के संवेदनशील लोग उसका डट कर मुकाबला करते हैं। भले ही इसके लिए उन्हें कोई भी कीमत चुकानी पड़े। जैगम इमाम की फिल्म ‘नक्काश’ इसी विषय पर आधारित है।

कहानी

बनारस का अल्लारक्खा सिद्दीकी (इनामुल हक) एक नक्काश है। वह मंदिरों के अंदर नक्काशी का काम करता है। उसके बाप-दादा और पुरखे भी यही काम करते थे। उसका मानना है कि भगवान इनसान-इनसान में कोई फर्क नहीं करते, बल्कि फर्क इनसान करता है। अल्लारक्खा की पत्नी का देहांत हो चुका है। उसके परिवार में सिर्फ उसका 6-7 साल का बेटा मोहम्मद (हरमिंदर सिंह) है। भगवानदास वेदांती (कुमुद मिश्रा) बनारस के एक बड़े मंदिर के मुख्य पुजारी हैं। उनकी नजर में अल्लारक्खा एक बेहतरीन नक्काश है, इसलिए उन्होंने उसे मंदिर की नक्काशी का काम सौंप रखा है। बनारस में उन दिनों हिन्दुओं व मुसलमानों के बीच अविश्वास की खाई बढ़ गई है, इसलिए माहौल में तनाव आ गया है। एक दिन कोतवाली का पुलिस इंस्पेक्टर (राजेश शर्मा) अल्लारक्खा को पकड़ कर थाने में बंद कर देता है और उसकी खूब पिटाई करता है। वेदांती जी उसे आकर छुड़ाते हैं। अल्लारक्खा का एक दोस्त है समद (शारिब हाशमी), जो ऑटोरिक्शा चलाता है। उसके पिता की बहुत प्रबल इच्छा है हज करने की। वह समद को इसके लिए हमेशा ताने देते रहते हैं। वह इस कारण बहुत तनाव में रहता है।

एक दिन अल्लारक्खा लखनऊ चला जाता है सबीहा (गुलकी जोशी) से दूसरी शादी करने के लिए। इसी बीच समद अल्लारक्खा के घर रखे मंदिर के सोने के जेवर चुराकर पिता को हज पर भेजने के लिए पैसे का प्रबंध करने लगता है। उसी दौरान पुलिस उसे पकड़ लेती है। अल्लारक्खा जब शादी करके अपने घर लौटता है, तो अपने घर को सील हुआ देखता है। बात पता चलने पर वह कोतवाली जाता है और सब माजरा जान कर चोरी का आरोप अपने ऊपर ले लेता है, ताकि समद के पिता हज पर जा सकें। लेकिन वेदांती जी का मानना है कि अल्लारक्खा ऐसा काम नहीं कर सकता। वेदांती के कहने पर पुलिस अल्लारक्खा व उसके बेटे को लेकर मंदिर आती है, जहां वेदांती जी अल्लरक्खा को कसम देते हैं, तब अल्लारक्खा सच बता देता है। पुलिस फिर से समद को गिरफ्तार कर लेती है….

डायरेक्शन और एक्टिंग

‘नक्काश’ की थीम अच्छी है, लेकिन पटकथा पर ढंग से मेहनत की गई होती और प्रस्तुतीकरण बेहतर होता, तो यह फिल्म काफी बेहतर होती। लेखक-निर्देशक अपनी बात दर्शकों तक पहुंचाने में कामयाब तो रहते हैं, लेकिन असर नहीं छोड़ पाते। सब कुछ बहुत यांत्रिक-सा लगता है। हां, अल्लारक्खा और मोहम्मद के दृश्य जरूर कुछ असर छोड़ते हैं। दोनों बाप-बेटे की केमिस्ट्री प्रभावित करती है। फिल्म में एकाध कॉमिक दृश्य भी हैं, लेकिन ठूंसे हुए लगते हैं। कई बातें फिल्म में क्यों हैं, यह समझना थोड़ा मुश्किल है। .

अल्लारक्खा की दूसरी पत्नी सबीहा का किरदार क्यों गढ़ा गया है, समझ में नहीं आता। सिनेमेटोग्राफर बनारस को अच्छे से नहीं दर्शा पाए हैं। गीत-संगीत भी साधारण है, जबकि ऐसी फिल्मों में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है। बतौर निर्देशक जैगम इमाम अपनी पिछली दोनों फिल्मों- ‘दोजख’ और ‘अलिफ’ के मुकाबले कमजोर नजर आते हैं। हालांकि उन्होंने गंगा-जमुनी तहजीब को ईमानदारी से पेश करने की कोशिश की है। .

इस वजह से देखें फिल्म

फिल्म का सबसे बेहतर पक्ष कलाकारों का अभिनय है। मुख्य भूमिका में इनामुल हक ने बहुत अच्छा अभिनय किया है। शारिब ने अपना काम ठीक किया है। कुमुद मिश्रा भी प्रभावित करते हैं। बाल कलाकार हरमिंदर ने मासूमियत के साथ अपना काम किया है। दूसरे कलाकार भी ठीक हैं।. ‘नक्काश’ की थीम अच्छी है, लेकिन पटकथा पर ढंग से मेहनत की गई होती और प्रस्तुतीकरण बेहतर होता, तो यह काफी बेहतर होती। लेखक-निर्देशक अपनी बात कहने में सफल तो हैं, पर असर नहीं छोड़ पाते।