हरी मिर्च की उन्नत खेती के लिए आपको ये लेख जरुर पढ़ना चाहिए…..

खबरें अभी तक। मिर्च भारत के अनेक राज्यों में पहाड़ी व मैदानी क्षेत्रों में फल के लिए उगायी जाती है।  मिर्चों में तीखापन या तेज़ी ओलियोरेजिल कैप्सिसिन नामक एक उड़नशील एल्केलॉइड के कारण तथा उग्रता कैप्साइसिन नामक एक रवेदार उग्र पदार्थ के कारण होती है।  भारत में मिर्च का प्रयोग हरी मिर्च की तरह एवं मसाले के रूप में किया जाता है।  इसे सब्जियों और चटनियों में डाला जाता है।

मिर्च के सुखाए हुए फलों में 0.16 से 0.39 प्रतिशत तक था सूखे बीजों में 26.1 प्रतिशत तेल पाया जाता है।  बाजार में आमतौर पर मिलने वाली मिर्चो में कैप्सीसिन की केवल 0.1 प्रतिशत मात्रा पायी जाती है।  मिर्च में अनेक औषधीय गुण भी होते हैं।  एक एस्कार्बिक अम्ल, विटामिन-सी की धनी होती है।

दोगुनी कमाई

हरी मिर्च की खेती से किसान लागत की तुलना में दोगुनी कमाई कर सकते हैं। शर्त यह है कि वे कृषि जलवायु क्षेत्र के अनुसार उन्नत प्रजातियों का प्रयोग करने के साथ ही फसल सुरक्षा के उचित उपाय करें।

फैजाबाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय से संबद्ध कृषि विज्ञान केंद्र बेलीपार के सब्जी वैज्ञानिक डा.एसपी सिंह के अनुसार प्रति एकड़ खेती की लागत करीब 35-40 हजार रुपये आती है। इतने रकबे में करीब 60 क्विंटल तक उपज संभव है। बाजार में यह 20 रुपये प्रति किग्रा के भाव से भी बिके, तो भी किसान को करीब एक लाख 20 हजार रुपये मिलेंगे। 40 हजार की लागत निकालने के बाद भी करीब दो गुने का लाभ होगा

जलवायु

मिर्च गर्म और आर्द्र जलवायु में भली-भाँति उगती है।  लेकिन फलों के पकते समय शुष्क मौसम का होना आवश्यक है।  गर्म मौसम की फ़सल होने के कारण इसे उस समय तक नहीं उगाया जा सकता, जब तक कि मिट्टी का तापमान बढ़ न गया हो और पाले का प्रकोप टल न गया हो।  बीजों का अच्छा अंकुरण 18-30 डि सें. ग्रे. तापामन पर होता है।

यदि फूलते समय और फल बनते समय भूमि में नमी की कमी हो जाती है, तो फलियाँ, फल व छोटे फल गिरने लगते हैं।  मिर्च के फूल व फल आने के लिए सबसे उपयुक्त तापमान 25-30 डि सें. ग्रे. है. तेज़  मिर्च अपेक्षाकृत अधिक गर्मी सह लेती है।  फूलते समय ओस गिरना या तेज़  वर्षा होना फ़सल के लिए नुकसानदाई होता है।  क्योंकि इसके कारण फूल व छोटे फल टूट कर गिर जाते हैं |

क़िस्में

पूसा ज्वाला : इसके पौधे छोटे आकार के और पत्तियॉ चौड़ी होती हैं।  फल 9-10 सें०मी० लम्बे ,पतले, हल्के हरे रंग के होते हैं जो पकने पर हल्के लाल हो जाते हैं।  इसकी औसम उपज 75-80 क्विंटल  प्रति  हेक्टेअर , हरी मिर्च के लिए तथा 18-20 क्विंटल  प्रति  हेक्टेअर सूखी मिर्च के लिए होती है।

पूसा सदाबाहर : इस क़िस्म के पौधे सीधे व लम्बे ; 60 – 80 सें०मी० होते हैं।  फल 6-8 सें मी. लम्बे, गुच्छों में , 6-14 फल  प्रति  गुच्छा में आते हैं तथा सीधे ऊपर की ओर लगते हैं पके हुए फल चमकदार लाल रंग ले लेते है।  औसत पैदावार 90-100 क्विंटल, हरी मिर्च के लिए तथा 20 क्विंटल प्रति  हेक्टेअर , सूखी मिर्च के लिए होती है।  यह क़िस्म मरोडिया, लीफ कर्लद्ध और मौजेक रोगों के लिए प्रतिरोधी है।

नर्सरी प्रबन्ध

नर्सरी बैंगन व टमाटर की तरह ही तैयारी की जाती है नर्सरी के लिए मिट्टी हल्की , भुरभुरी व पानी को जल्दी सोखने वाली होनी चाहिए।  पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्वों का होना भी जरूरी है।  नर्सरी में पर्याप्त मात्रा में धूप का आना भी जरूरी है।  नर्सरी को पाले से बचाने के लिए , नवम्बर-दिसम्बर बुआई में पानी का अच्छा प्रबन्ध होना चाहिए ।  नर्सरी की लम्बाई 10-15 फुट तथा चौड़ाई 2.3-3 फुट से अधिक नहीं होनी चाहिए क्योंकि निराई व अन्य कार्ये में कठिनाई आती है।  नर्सरी की उंचाई 6 इंच या आधा फीट रखनी चाहिए।  बीज की बुआई कतारों में करें।  कतारों का फासला 5-7 सें०मी० रखा जाता है।  पौध लगभग 6 सप्ताह में तैयार हो जाती है।

मृदा एवं खेती की तैयारी

मिर्च यद्यपि अनेक प्रकार की मिट्टियों में उगाई जा सकती है, तो भी अच्छी जल निकास व्यवस्था वाली कार्बनिक तत्वों से युक्त दुमट मिट्टियाँ इसके लिए सर्वेतम होती हैं। जहाँ फ़सल काल छोटा है, वहां बलुई तथा बलुई दोमट मिट्टयों को प्राथमिकता दी जाती है।  बरसाती फ़सल भारी तथा अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी में बोई जानी चाहिए।

जमीन पांच-छः बार जोत कर व पाटा फेर कर समतल कर ली जाती है।  गोबर की सड़ी हुई खाद 300-400 क्विंटल, जुताई के समय मिला देनी चाहिए।  खेती की ऊपरी मिट्टी को महीन और समतल कर लिया जाना चाहिए तथा उचित आकार की क्यारियां बना लेते हैं।

बीज-दर

एक से डेढ़ किलोग्राम अच्छी मिर्च का बीज लगभग एक हेक्टेअर में रोपने लायक पर्याप्त पौध बनाने के लिए काफ़ी होता है।

निराई-गुड़ाई

पौधों की वृद्धि की आरम्भिक अवस्था में खरपतवारो पर नियंत्रण पाने के लिए दो तीन बाद निराई करना आवश्य होता है।  पौध रोपण के दो या तीन सप्ताह बाद मिट्टी चढाई जा सकती है।

सिंचाई

पहली सिंचाई पौध प्रतिरोपण के तुरन्त बाद की जाती है।  बाद में गर्म मौसम में हर पाँच-सात दिन तथा सर्दी में 10-12 दिनों के अन्तर पर फ़सल को सींचा जाता है।

बुआई

मैदानी और पहाड़ी ,दोनो ही इलाकों में मिर्च बोने के लिए सर्वोतम समय अप्रैल-जून तक का होता है।  बडे फलों वाली क़िस्में मैदानी में अगस्त से सितम्बर तक या उससे पूर्व जून-जुलाई में भी बोई जा सकती है।  पहाडों में इसे अप्रैल से मई के अन्त तक बोया जा सकता है।

उत्तर भारत में जहां सिंचाई की सुविधाएं उपलब्ध हैं, मिर्च का बीज मानसून आने से लगभग 6 सप्ताह पूर्व बोया जता है और मानसून आने के साथ-साथ इसकी पौध खेतों में प्रतिरोपित कर दी जाती है।  इसके अलावा दूसरी फ़सल के लिए बुआई जाता नवम्बर-दिसम्बर में की जाती है और फ़सल मार्च से मई तक ली जाती है।

खाद एवं उर्वरक

गोबर की सड़ी हुई खाद लगभग 300-400 क्विंटल जुताई के समय गोबर मृदा में मिला देना चाहिए रोपाई से पहले 150 किलोग्राम यूरिया ,175 किलोग्राम सिंगल सुपर फ़ॉस्फ़ेट तथा 100 किलोग्राम म्यूरिएट ऑफ पोटाश तथा 150 किलोग्राम यूरिया बाद में लगाने की सिफारिश की जाती है।  यूरिया उर्वरक फूल आने से पहले अवश्य दे देना चाहिए।

पौध संरक्षण

आर्द्रगलन रोग  यह रोग ज्यादातर नर्सरी की पौध में आता है।  इस रोग में सतह , ज़मीन के पास द्धसे हुआ तना गलने लगता है तथा पौध मर जाती है।  इस रोग से बचाने के लिए बुआई से पहले बीज का उपचार फफंदूनाशक दवा कैप्टान 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से करना चाहिए।  इसके अलावा कैप्टान 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर सप्ताह में एक बार नर्सरी में छिड़काव किया जाना चाहिए।

एन्थ्रेक्नोज रोग  इस रोग में पत्तियों और फलों में विशेष आकार के गहरे, भूरे और काले रंग के घब्बे पड़ते है।  इसके प्रभाव से पैदावार बहुत घट जाती है इसके बचाव के लिए वीर एम-45 या बाविस्टन नामक दवा 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव  करना चाहिए।

मरोडिया लीफ कर्ल रोग  यह मिर्च की एक भंयकर बीमारी है।  यह रोग बरसात की फ़सल में ज्यादातर आता है।  शुरू में पत्ते मुरझा जाते है।  एवं वृद्धि रुक जाती है।  अगर इसके समय रहते नहीं नियंत्रण किया गया हो तो ये पैदावार को भारी नकुसान पहुँचाता है।  यह एक विषाणु रोग है जिसका कोई दवा द्धारा नित्रंयण नहीं किया जा सकता है।

यह रोग विषाणु, सफेद मक्खी से फैलता है।  अतः इसका नियंत्रण भी सफेद मक्खी से छुटकारा पा कर ही किया जा सकता है।  इसके नियंत्रण के लिए रोगयुक्त पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर दें तथा 15 दिन के अतंराल में कीटनाशक रोगर या मैटासिस्टाक्स 2 मि०ली० प्रति ली की दर से छिड़काव करें।  इस रोग की प्रतिरोधी क़िस्में जैसे-पूसा ज्वाला, पूसा सदाबाहर और पन्त सी-1 को लगाना चाहिए।

मौजेक रोग  इस रोग में हल्के पीले रंग के घब्बे पत्तों पर पड़ जाते है।  बाद में पत्तियाँ पूरी तरह से पीली पड़ जाती है।  तथा वृद्धि रुक जाती है।  यह भी एक विषाणु रोग है जिसका नियंत्रण मरोडिया रोग की तरह ही है।

थ्रिप्स एवं एफिड  ये कीट पत्तियों से रस चूसते है और उपज के लिए हानिकारक होते है।  रोगर या मैटासिस्टाक्स 2 मि. ली.  प्रति ली. पानी में घोल बनाकर छिड़काव करने से इनका नियंत्रण किया जा सकता है।

उपज

सिंचित क्षेत्रों में हरी मिर्च की औसत पैदावार लगभग 80-90 क्विंटल प्रति  हेक्टेअर और सूखें फल की उपज 18-20 क्विंटल प्रति  हेक्टेअर होती है.