31 जुलाई 1880 को जन्में मुंशी प्रेमचंद की आज 139 वीं जयंती आज

ख़बरें अभी तक। 31 जुलाई 1880 को जन्में मुंशी प्रेमचंद की आज 139 वीं जयंती आज, मुंशी प्रेमचंद जी उर्दू तथा हिंदी के एक महान कवी थे जो की एक कवि व लेखक के अलावा अध्यापक, लेखक तथा पत्रकार भी थे. साहित्य और प्रेमचंद में रुचि रखने वालों के अलावा बहुत कम ही लोग यह जानते हैं कि प्रेमचंद ने कई वैचारिक लेख भी लिखे हैं. प्रेमचंद का जिक्र जब आता है तो उनके अनेकानेक कालजयी उपन्यासों का ज़िक्र होता है. यह उचित भी है. लेकिन, क्या आप जानते हैं कि प्रेमचंद ने कभी फ़िल्मों में भी अपना कैरियर बनाने की कोशिश की थी. हालांकि, वो इस दिशा में सफल नहीं हो पाए. आपको यह जानकर हैरानी हो सकती है कि प्रेमचंद जिन्हें कलम का जादूगर भी कहा जाता है फ़िल्मों में इसलिए कामयाब नहीं हो सके क्योंकि वो कमाल का लिखते थे.

मुंशी प्रेमचंद ने साल 1936 में अपना अंतिम उपन्यास गोदान लिखा. जो काफी चर्चित रहा. प्रेमचंद का मूल नाम धनपत राय था. कभी शिक्षक के रूप में 18 रुपये प्रति माह की नौकरी करने वाले प्रेमचंद को तब फ़िल्म स्टूडियो अजंता सिनेटोन ने 8000 रुपये की बड़ी सैलरी पर काम पर रखा था. साल 1930 से 1940 का दौर ऐसा था कि तब देश भर से लेखक और साहित्यकार मायानगरी मुंबई में ज़मीन तलाश रहे थे. प्रेमचंद ने ‘मिल मजदूर’ में वर्किंग क्लास की समस्याओं को बड़ी ही मजबूती से उठाया था. तत्कालीन ब्रिटिश सरकार भला इस फ़िल्म को कैसे रिलीज़ होने देती तो इस फ़िल्म पर तब प्रतिबंध लगा दिया गया. किसी तरह यह फ़िल्म लाहौर, दिल्ली और लखनऊ के सिनेमा हॉल में रिलीज़ हुई और इस फ़िल्म का मजदूरों पर ऐसा असर हुआ कि हर तरफ विरोध के स्वर गूंजने लगे. फिर आनन फानन में इस फ़िल्म को थियेटर से हटा लिया गया. अंततः प्रेमचंद समझ गए कि फ़िल्म इंडस्ट्री में उनकी बात कोई नहीं सुनेगा, बहुत निराश मन से वो वापस बनारस लौट गए.

प्रेमचंद ने तब अपने एक दोस्त को चिट्ठी लिखी थी जिसमें वो लिखते हैं- ‘‘सिनेमा से किसी भी तरह की बदलाव की उम्मीद रखना बेईमानी है. यहां लोग असंगठित हैं और इन्हें अच्छे-बुरे की पहचान नहीं है. मैंने एक कोशिश की लेकिन, मुझे लगता है कि अब इस दुनिया (फ़िल्मी) को छोड़ना ही बेहतर है.’’ उसके बाद 1935 में वो बनारस लौट गए. उसके बाद उन्होंने ‘सिनेमा और साहित्य’ पर तीखे लहजे में एक आलोचनात्मक निबंध लिखी. जिसमें उन्होंने कहा कि फ़िल्म इंडस्ट्री सिर्फ मुनाफे कमाने के लिए काम करती है. दुर्भाग्य से आज ‘मिल मजदूर’ की एक भी कॉपी कहीं नहीं बची है. इसमें कोई संदेह नहीं कि आज अगर वो फ़िल्म होती तो जो पीढ़ी आज किताबों से दूर है वो मचंद को एक अलग रूप में जान पाती.

बता दें कि सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में बनाईं. 1977 में ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और 1981 में ‘सद्गति’. प्रेमचंद के निधन के दो साल बाद सुब्रमण्यम ने 1938 में ‘सेवासदन’ उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी. 1977 में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ पर आधारित ‘ओका ऊरी कथा’ नाम से एक तेलुगू फ़िल्म बनाई, जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. 1963 में ‘गोदान’ और 1966 में ‘गबन’ उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं. 1980 में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक ‘निर्मला’ भी बहुत लोकप्रिय हुआ था.

मुंशी प्रेमचंद की कुछ चर्चित कहानियां और उपन्यास के बारे में आपको बताते है : मंत्र, नशा, शतरंज के खिलाड़ी, पूस की रात, आत्माराम, बूढ़ी काकी, बड़े भाईसाहब, बड़े घर की बेटी, कफन, उधार की घड़ी, नमक का दरोगा, जुर्माना आदि. प्रेमचंद की चर्चित उपन्यास: गबन, बाजार-ए-हुस्न (उर्दू में), सेवा सदन, गोदान, कर्मभूमि, कायाकल्प, मनोरमा, निर्मला, प्रतिज्ञा प्रेमाश्रम, रंगभूमि, वरदान, प्रेमा आदि.

यहां आज मुंशी प्रेमचंद जी की जयंती के अवसर पर हम आपको उनकी पसंदीदा एक कविता को दिखाएंगे….

क्या तुम समझते हो मुझे छोड़कर भाग जाओगे?

भाग सकोगे?

मैं तुम्हारे गले में हाथ डाल दूँगी,

मैं तुम्हारी कमर में कर-पाश कस लूँगी,

मैं तुम्हारा पाँव पकड़ कर रोक लूँगी,

तब उस पर सिर रख दूँगी,

 

क्या तुम समझते हो,

मुझे छोड़ कर भाग जाओगे?

छोड़ सकोगे?

मैं तुम्हारे अधरों पर अपने कपोल चिपका दूँगी,

उस प्याले में जो मादक सुधा है-

उसे पीकर तुम मस्त हो जाओगे।

और मेरे पैरों पर सिर रख दोगे।

 

क्या तुम समझते हो मुझे छोड़कर भाग जाओगे?