बनाकर दीये मिट्टी के ज़रा सी आस पाली है, मेरी मेहनत ख़रीदो लोगों, मेरे घर भी दीवाली है

ख़बरें अभी तक। संस्कृति व परंपराओं पर आधुनिक जमाने की चकाचौंध भारी पड़ रही है, भारतीय संस्कृति से जुड़े पारंपरिक त्योहारों पर यहां के कारीगरों द्वारा निर्मित सामान को तरजीह दी जाती है, लेकिन अब दीपावली पर मिट्टी के दीये की जगह बिजली के बल्ब लडिया चमकते हैं। दीये को दीपावली के प्रतीक के रूप में मान जाता है इसके बिना त्योहार नहीं मनाया जा सकता लेकिन आज इलेक्ट्रोनिक सामान को दीये की शक्ल दे दिए जाने से मिट्टी के दीयों की मांग कम हुई है इससे कुम्हार का पारंपरिक व्यवसाय तो प्रभावित हुआ ही है और साथ ही उसकी दीपावली भी फीकी है।

दीपावली पर मिट्टी के दिये बेचकर कुम्हार के घर की दीपावली अच्छी होती है।जिसका इंतजार भी उसे साल भर रहता है। लेकिन दिन प्रतिदिन बढ़ती आधुनिकता के जमाने की चकाचौंध अब कुम्हार पर और उसके व्यवसाय पर भारी पड़ रही है और साथ ही साथ एक इशारा है एक और पारंपरिक प्रथा के खत्म होने की।

दीपावली के दिन श्रीराम चंद्र जी 14 वर्ष का बनवास काटकर अयोध्या वापिस लौटे थे, उनके आगमन की खुशी में अयोध्या वासियों ने दीप जलाकर खुशी मनाई थी, तभी से यह परंपरा चली आ रही है, घर- घर में देसी घी व तेल के दीये जलाए जाते हैं। घर की मुंडेर पर दीये सजाने का प्रचलन सदियों से चला आ रहा है, लेकिन पिछले कुछ दशकों से मोमबत्ती ने दीये का स्थान लिया और अब तो बिजली से जगमगाने वाले दीये ही घरों में दिखाई देते हैं।

बाजार में बिजली से चमकने वाले स्वास्तिक, ओम, ओंकार, मल्टी कलर की रिमोट वाली स्टिप, लेजर लाइट, लड़ी, गुबारे लाइट, दीये की स्टिप के अलावा विभिन्न प्रकार की लड़ियां मिलती हैं दीयो की मांग दिन ब दिन कम हो रही है और एक और पारंपरिक प्रथा खत्म होने की कदार पर है।

माटी के दिए बनाने वाले कुम्हारो का कहना है की  तो चिकनी मिटटी मिलती है और ना ही मिटटी के दिए लेने वाले खरीदार मिटटी महंगी उसे खरीदो और फिर कई दिनों की मेहनत कर दिए बनाओ और जब बेचने जाओ तो उसके लिए खरीददार नहीं मिलता।