कवि केदारनाथ सिंह पर विशेष: ‘मुझे विश्वास है यह पृथ्वी रहेगी, यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अंदर’

एम्स में भर्ती कविवर केदारनाथ सिंह का पिछले सोमवार रात साढ़े नौ बजे निधन हो गया। 18 फरवरी को निमोनिया के कारण उन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया था। तबसे उनके स्वास्थ्य में उतार-चढ़ाव आते रहे जो अंतत: 19 मार्च को उनकी चिर विदाई का कारण बने। केदारनाथ सिंह अज्ञेय के तीसरे सप्तक के अंतिम जीवित कवि थे। उनका जाना हिंदी साहित्य की बड़ी घटना है। वे निराला, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, अज्ञेय, मुक्तिबोध और कुंवर नारायण की परंपरा के आखिरी समकालीन कवि थे जिनकी कविताएं हमारी भाषा और संस्कृति की व्यापक चिंताओं से आकार ग्रहण करती थीं।

भारत छोड़ो आंदोलन की क्रांतिभूमि बलिया (उत्तर प्रदेश) के गांव चकिया में 1 जुलाई 1934 को उनका जन्म हुआ था। बनारस  हिंदू विश्वविद्यालय के विद्यार्थी रहे केदारजी  आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के योग्य शिष्यों में से थे। बनारस में पढ़ाई के दिनों में वे नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, काशीनाथ सिंह और विद्यासागर नौटियाल जैसे योग्य लेखकों के मित्र रहे। यहां से उन्होंने 1956 में हिंदी में एम. ए. और 1964 में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की थी।

उनकी कविता पुस्तक का आना हमारी भाषाओं में एक घटना की तरह होता था। केदारनाथजी ने अपना निजी काव्य मुहावरा बनाया और उनके इस मुहावरे को कविताओं में देखना-पढ़ना ताजगी भरा अनुभव रहता। उनकी प्रसिद्ध कविता ‘बनारस’ पिछले लोकसभा चुनावों में खूब चर्चित हुई थी जिसमें वे इस शहर के जीवन में मौजूद तमाम छवियों को जीवंत करते हैं। ठेठ गांव से अंत तक जुड़े रहे इस कवि की संवेदनाएं अपूर्व हैं और इनका विस्तार जब शहर तक होता है तो उनकी कविता अद्भुत बिंब ग्रहण करती है। ‘शहर में रात’ की पंक्तियां हैं- ‘यह शहर कि जिसकी जिद है सीधी-सादी/ ज्यादा-से-ज्यादा सुख सुविधा आजादी/ तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में/ यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में।’ उनके अंतिम संग्रह में आई एक कविता ‘बबूल के नीचे सोता बच्चा’ जीवन में गहरे धैर्य-विश्वास की कविता है।