हैसियत नहीं पर हस्ती बरकरार, मैं हूं ‘मांझी’ मुझे चाहिए बस कोई पतवार

खबरें अभी तक। बिहार की राजनीति को पिछले तीन वर्षों से गहरे तरीके से प्रभावित करने वाले जीतन राम मांझी की नाव घूमकर फिर उसी किनारे पहुंच गई है, जहां से 1980 में सफर की शुरुआत की थी। तब मांझी क्लर्क की नौकरी छोड़कर तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा की कृपा से कांग्रेस के टिकट पर पहली बार विधायक बने थे। तबसे अभी तक मांझी पांच बार पतवार बदल चुके हैं, लेकिन किनारे की खोज शायद अभी खत्म नहीं हुई है। 1996 में पाला बदलकर राजद के हमराही बने मांझी तकरीबन 16 वर्षों के बाद फिर राजद के साथ खड़े हैं।

इसके पहले भी उनका सियासी सफर थमा नहीं था। 2005 में नीतीश कुमार की नीतियों से प्रभावित होकर मांझी ने राजद छोड़कर जदयू का दामन थाम लिया था। 2014 के लोकसभा चुनाव में जदयू की शिकस्त के बाद मांझी की किस्मत उस समय अचानक बुलंद हो गई, जब सामाजिक समीकरण साधने के लिए नीतीश ने उन्हें बिहार का ताज सौंप दिया, लेकिन मांझी का मन ज्यादा दिनों तक स्थिर नहीं रह सका।

मई 2014 से 22 फरवरी 2015 तक मुख्यमंत्री रहे। अपने तरीके से सरकार चलाने लगे। किंतु आलाकमान से अनबन होते ही अलग पार्टी बनाकर उन्होंने अपनी शर्तों पर सफर शुरू कर दिया और विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा से गठबंधन करके राजग में शामिल हुए। तब भाजपा महादलितों के वोट के लिए मांझी पर निर्भर थी। इसलिए उन्हें 20 सीटें दी गईं, जिसमें सिर्फ एक पर जीत मिली। मांझी अपनी पार्टी के अकेला विजेता रहे।

हैसियत नहीं पर हस्ती बरकरार-

बिहार में राजनीतिक रूप से मांझी की कोई बड़ी हैसियत नहीं है, किंतु किसी दल के साथ दोस्ती का सियासी महत्व जरूर है। मिशन-2019 की तैयारियों में जुटे बड़े दलों की ताकत को मांझी प्रभावित करने में सक्षम जरूर हैं। महागठबंधन के बिखरने के बाद बिहार में सियासी संतुलन के लिए मांझी के पलड़े को अहम माना जा रहा है। नीतीश कुमार के भाजपा के पक्ष में खड़े होने से राजद-कांग्र्रेस के रणनीतिकार परेशान थे। जदयू-भाजपा की दोस्ती बिहार में पिछले दो दशकों से सत्यापित है। रांची जेल में बंद लालू प्रसाद के लिए यह परेशानी का बड़ा सबब था। मांझी का साथ पाकर लालू खुद को मजबूत महसूस कर सकते हैं।