जानिए चंबा में क्यों खास है रथ-रथनी मेला, पढ़े ये खबर..

ख़बरें अभी तक: चंबा का इतिहास 1000-1100 साल पुराना है. जिसे चंबा के राजा साहिल वर्मन ने 9वीं और 10वीं शताब्दी में बसाया. राजा साहिल ने इसका नाम अपनी बेटी चम्पावती के नाम से मिलता चम्बा रख दिया जो आज चम्बा के ही नाम से जाना जाता है. साल के 12 महीनों में इस ऐतिहासिक चम्बा नगरी में कोई न कोई त्यौहार और मेले लगे रहते है. इसी में से एक रथ-रथनी मेला भी है. इस मेले को सदियों से लोग बड़ी धूम- धाम से मनाते चले आ रहे है और अपनी इस प्राचीन धरोहर को आज भी स्थानीय लोग संजोय हुए है. इस प्राचीन रथ -रथनी मेले का प्रारम्भ चम्बा शहर में स्थित एक कोने में बने भगवान विष्णु हरिराय के मंदिर से प्रारम्भ होता है तो वहीं भगवान बिष्णु का मोहिनी रथनी के रूप में प्रसिद्ध लक्ष्मी नारायण मंदिर से प्रारम्भ होता है।

माना जाता है कि भस्मासुर राक्षस के आतंक से शहर में बहुत ज्यादा दहशत थी जिसे समाप्त करने के लिए राजा साहिल वर्मन ने अपने राज्स्वीय दरबार में बैठे बुद्धिजीवियों वह धार्मिक ग्रंथो के ज्ञाता पंडितो और ज्योत्सियो को इससे निजात पाने के लिए क्या उपाय किये जाये तो उन लोगों ने बहुत विचार विमर्श करके राजा को एक उपाय बताया की शहर में एक रथ-रथनी का मेला करवाया जाए जिसमे हरी राय मंदिर से एक रथ तैयार हो जिसे भस्मासुर का प्रतीक माना जाए और दूसरी तरह लक्ष्मी नारायण मंदिर से भगवान विष्णु का मोहिनी रूप रथनी तयार किया जाए जिन्हे शहर के बीचों बीच आपस में टकराया जाए जो इस बात का प्रतीक होगा की अब शहर वासियों को जीन और भूतों से निजात मिल गयी है। इसी दौरान लोग जब रथ को हरिराय मंदिर से उठाकर टककर के लिए लाया जाता हे तो दूसरी तरफ से लोग एक दूसरे के ऊपर सड़ी गलि सब्जियां ,अंण्डे,वह मक्की के टोटु ,फेंकते देखे जा सकते हे अतः इस टकराब के बाद भस्मासुर के रूप में तैयार किये गए रथ को लोग कंधे में उठा कर शहर की परिक्रमा करते हे और बीच चौगान में लोगो द्वारा इस रथ को नष्ट कर देते हे इस प्रकार भस्मासुर राक्षस का अंत माना जाता है।

इस मेले का प्रारम्भ पंडितों द्वारा पुरे विधि विधान वह पूजा पाठ से किया जाता है। हालाँकि इससे पहले पशु बली दी जाती थी परन्तु माननीय सर्वोच्म न्यायलय द्वारा पशु वली पर पूर्णतः प्रतिबंध होने पर लोगों ने इस परम्परा को बनाये रखने के लिए नारियल तोड़कर इस परम्परा को निभाया। लोगों की माने तो इस मेले से जुड़ी प्राचीन बातों का उल्लेख कुछ इस तरह से भी आता है की रक्षाबंधन के दिन बहनों द्वारा भाईयों की कलाईयों पर बांधी गयी राखी आज ही के दिन इस भस्मासुर राक्षस के प्रतीक रथ पर इन रखड़ियों को उतार कर रखते है ताकि बुराई का अंत हो सके। हालाँकि लोग अपने में बची कुची बुराई का अंत इस भस्मासुर राक्षस रूपी रथ के नीचे से निकलकर करते है। ताकि उनकी सम्पूर्ण बुराईयां खत्म हो सके ओर दूसरी तरफ भगवान विष्णु का मोहिनी रूप रथनी से भी लोग अपने बाल बच्चों को परिक्रमा करवाते देखे जा सकते हे ताकि बुराईयों से निजात मिल सके।

हरि राय मंदिर के पंडित वह स्थानीय लोगों ने बताया कि चंबा शहर में रथ रथनी का एक अलग ही तरह का मेला मनाया जाता है। जिसमें भगवान हरि राय मंदिर से एक रथ को तैयार किया जाता है जिसे भस्मासुर का रूप माना जाता है और भगवान लक्ष्मी नारायण मंदिर से एक रथनी जिसे भगवान विष्णु का मोहिनी अवतार माना जाता है इन्हें तैयार कर इनकी पूजा-अर्चना के बाद इन्हें शहर के बीच में टकराया जाता है। उसके बाद रथनी को चंपावती मंदिर में पूजा अर्चना के लिए लिया जाता है और रथ को पूरे शहर में चककर लगाया जाता है। बाद में उसे चौगान मैदान के अंदर लाकर विध्वंस कर दिया जाता है और इस तरह से यह मेला मनाया जाता है। उन्होंने बताया कि रथ का जो कपड़ा होता है उस के टुकड़ों को लोग अपने घर में रखते हैं जिससे बाहर की शक्तियों का उनके घर पर कोई भी प्रभाव नहीं होता है। इसी तरह से यह परंपरा सदियों से चली आ रही है।