भैरवाष्टमी पर काशी के कोतवाल के दरबार में उमड़ा भक्तों का हुजूम

खबरें अभी तक। भैरव अष्टमी के अवसर पर काशी के काल भैरव मंदिर में भक्तों का भारी हुजूम देखने को मिला. भक्त अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए बाबा के दरबार में हाजिरी लगाने पहुंच रहे हैं । धर्म और अध्यात्म की नगरी काशी जहां पर देवों के देव महादेव और बनारस की रक्षा करने के लिए कोतवाल के रूप में कालभैरव विराजमान हैं. बाबा काल भैरव वैसे तो भैरों के 8 रूप हैं, लेकिन काशी के कोतवाल का अपना ही महत्व है. मान्यता है कि काशी में आने वाला कोई भी बिना कोतवाल भैरव का आशीर्वाद लिए वापस नहीं जा सकता, चाहे वह बनारस आने वाला कोई अधिकारी हो या सत्ता हासिल करने वाला प्रधानमंत्री या फिर मुख्यमंत्री. हर कोई काशी आने पर काल भैरव के आगे शीश नवाना नहीं भूलते.

काशी में भैरव दंड रूप में भक्तों को देते हैं आशीर्वाद

भैरव अष्टमी के मौके पर काशी के काल भैरव मंदिर में धूमधाम के साथ इसे मनाया जा रहा है. गुब्बारे से पूरे मंदिर परिसर और मंदिर को आने वाली सड़क को सजाया गया. यहां पर बाबा के दंड से खुद को झड़वाने का भी महत्व है. कहा जाता है कि काशी में भैरव दंड रूप में भक्तों को आशीर्वाद देते हैं और यहां पर मयूर पंख से बने दंड से भक्तों को आशीर्वाद दिया जाता है. काला गंडा भक्त पहनते हैं. कहते हैं कि गले में पहने जाने वाला गंडा भैरव की जटा का रूप है और भक्तों को डर, भय और बुरी नजरों से बचाता है. यही वजह है कि आज भैरव अष्टमी के मौके पर काशी के काल भैरव मंदिर में भक्ति का एक अलग ही रूप देखने को मिल रहा. बाबा को मदिरा अतिप्रिय है और मान्यता है कि इसे चढ़ाने से भक्तों की हर मुराद पूरी होती है.

कृष्ण पक्ष की अष्टमी को है काल भैरव की जयंती

अगहन में पड़ने वाले कृष्ण पक्ष की अष्टमी को काल भैरव की जयंती मनायी जाती है. मान्यता है कि भगवान शंकर के क्रोध से जन्मे भैरव का यह रूप काशी में अलग महत्व रखता है. पौराणिक कथा के अनुसार एक बार ब्रह्मा-विष्णु-महेश तीनों में खुद को सर्वश्रेष्ठ दिखाने को लेकर विवाद हुआ. जिसमें भगवान शिव की निंदा ब्रह्मा ने की और उस वक्त भगवान शंकर ने क्रोधित होकर भैरव की उत्पत्ति की. भगवान शंकर के क्रोध से जन्मे भैरो ने ब्रह्मा के 5 सिर में से एक सिर को काट दिया. उसके बाद भैरव को ब्रह्म हत्या का पाप लगा और ब्रह्म हत्या के पाप को दूर करने के लिए भैरव को भगवान शंकर ने काशी भेजा. जहां पर उनका वास हुआ और काशी की रक्षा की जिम्मेदारी भी उनको दी गई. यहां उनको ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति मिली और काशी के कोतवाल के रूप में उनकी पूजा शुरू हुई.